तांगे से पूर्व भारत में इक्के का प्रचलन था। 1904 में, विलियम गिल्बर्ट ने भारत के अपने मानवशास्त्रीय विवरण में, तांगे को परिवहन के सबसे सामान्य साधन के रूप में पहचाना। उन्होंने कहा तांगा इक्का से अलग था किंतु दोनों ही एक घोड़े से खींची जाने वाली गाड़ियां थीं । एक समय था जब शिलांग और गुवाहाटी भी एक दैनिक तांगा सेवा से जुड़े हुए थे। तीन पहिया ऑटोरिक्शा की बढ़ती लोकप्रियता के साथ, भारत के अधिकांश शहरों में तांगा का उपयोग समाप्त सा होता जा रहा है । कुछ इलाकों में सार्वजनिक सड़कों से तांगों को वास्तव में प्रतिबंधित कर दिया गया है। ताजमहल के आसपास विदेशी टूरिस्ट इसपर सवार होकर अब भी बहुत आनंद लेते हैं।
उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश और पंजाब के ग्रामीण क्षेत्रों में तांगे अब भी देखे जा सकते हैं। परिवहन के आधुनिक साधनों के अलावा तांगे अभी भी उत्तर भारत के कई छोटे शहरों में सामान और यात्रियों को उनके गंतव्य तक पहुंचाने के लिए रेलवे स्टेशनों और बस स्टॉप के प्रवेश द्वार पर सेवाएं प्रदान करते हैं। आधुनिक परिवहन की गति और लोगों की कमाई के कारण तांगा की संस्कृति गायब हो रही है। हालाँकि, अभी भी कुछ लोग इस परंपरा को जीवित रखना चाहते हैं। विदेशी पर्यटक अभी भी इसका अनुभव करने के लिए इसपर सवारी करते हैं।