अलीगढ़/आगरा: प्रख्यात इतिहासकार प्रोफ़ेसर इरफान हबीब का कहना है कि इतिहास केवल साक्ष्यों और स्थापित तथ्यों पर खड़ा होता है। किसी भी प्रकार की अनावश्यक छेड़छाड़ न केवल इतिहास की विश्वसनीयता को नुकसान पहुँचाती है, बल्कि समाज के सभी वर्गों में असहजता भी पैदा करती है। अलीगढ़ स्थित अपने निवास पर सिविल सोसायटी ऑफ आगरा के प्रतिनिधियों से चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि सत्ता संस्थान अक्सर तथ्यों को अपने अनुकूल ढालने की कोशिश करते रहे हैं। स्थानों के नाम बदलने की बढ़ती प्रवृत्ति भी उसी सोच का हिस्सा है, जो पहले भी थी लेकिन आज अधिक तेज़ी से दिखाई देती है।
इतिहास में तथ्यों की विश्वसनीयता का संकट
प्रो. हबीब ने कहा कि हाल के समय में स्थापित साक्ष्यों को नज़रअंदाज़ कर भारतीय इतिहास की नई व्याख्या गढ़ने का चलन बढ़ा है। उनका स्पष्ट कहना था कि इतिहासकार का काम तथ्यों का निर्माण करना नहीं, बल्कि उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर उन्हें स्थापित करना है। उन्होंने याद दिलाया कि अतीत में केंद्र सरकार की नीतियों में भी इतिहास को अपने तरीके से ढालने के प्रयास हुए थे। उन्होंने उस दौर का भी उल्लेख किया जब तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री ने एक पुस्तक के विमोचन में कहा था कि यह किताब “हबीब एंड कंपनी” के इतिहास का खंडन करती है, जो उनके अनुसार इतिहास को राजनीतिक व्याख्या के अनुसार मोड़ने की प्रवृत्ति का उदाहरण था।
प्रो. हबीब ने कहा कि जिन लोगों को इतिहास की समझ है, उनके आलोचनात्मक सुझावों का हमेशा स्वागत होना चाहिए, लेकिन कम जानकारी और कल्पित तथ्यों के आधार पर इतिहास में हस्तक्षेप किसी भी स्थिति में स्वीकार्य नहीं है।
पुरातात्विक धरोहरों का संरक्षण और बढ़ती उपेक्षा
उन्होंने अलीगढ़ की पुरातात्विक धरोहरों का उल्लेख करते हुए कहा कि मराठा शासन और रियासत कालीन कई संरचनाएँ अब ख़राब स्थिति में हैं, कुछ तो विलुप्त भी हो चुकी हैं। कभी पुरातत्व विभाग की टीमें नियमित सर्वेक्षण के लिए आती थीं, लेकिन अब यह सिलसिला लगभग समाप्त हो गया है। शहर में मुख्य रूप से केवल किले का कुछ हिस्सा और गेट ही बचा है, जिसे संरक्षित किया जा सकता है।
आगरा को उन्होंने विरासत की दृष्टि से देश के सबसे महत्वपूर्ण शहरों में बताया। यहाँ न केवल पुरा-संपदा है, बल्कि अभिलेखागार, प्रशासनिक दस्तावेज, दरबारी वृतांत और संग्रहित विवरण भी असाधारण महत्व रखते हैं। मुगल काल और उसके बाद शासन करने वाली कई राजसत्ताओं के रिकॉर्ड आगरा से संबद्ध रहे हैं, और यही कारण है कि इन दस्तावेजों का संरक्षण अत्यंत आवश्यक है। कम प्रसिद्ध स्मारकों और पुरावशेषों के प्रति जागरूकता बनाए रखना समय की आवश्यकता है। उन्होंने 'Monumental Antiquities of North Western Provinces' पुस्तक का भी ज़िक्र किया, जिसमें सौ साल पहले के पुरातात्विक स्थलों का अत्यंत सटीक विवरण दर्ज है और जो आज भी शोधकर्ताओं के लिए उपयोगी है।
फतेहपुर सीकरी से संबंधित तेरह मोरी बाँध पर चर्चा करते हुए उन्होंने बताया कि यह बाँध वास्तु और तकनीकी दृष्टि से विशेष महत्व रखता है। सिविल सोसायटी ऑफ आगरा के प्रयासों के बाद एएसआई ने इसे फतेहपुर सीकरी का अभिन्न हिस्सा माना है और इसे कार्यशील बनाने के लिए सिंचाई विभाग को कार्यवाही की अनुमति दी है। इस विषय पर उनका शोध “Chāh ba Chāh: The Technique of Water-lifting at Fatehpur Sikri” के नाम से प्रकाशित है।
इतिहास शोध में भाषा, स्रोत और नए अध्ययन की चुनौतियाँ
प्रो. हबीब ने कहा कि भारत के एक बड़े भूभाग में अंग्रेज़ी के आगमन से पहले तक प्रशासन की भाषा **फारसी** थी। आज फारसी जानने वालों की कमी के कारण कई पुराने दस्तावेज़ अनुवाद और विश्लेषण के बिना ही पड़े रह जाते हैं, जिससे इतिहास शोध में नई चुनौतियाँ खड़ी हो गई हैं। जयपुर और आमेर के राजाओं के मुगल दरबार से पत्राचार का अधिकांश हिस्सा फारसी में है, जिसे समझना अब कठिन होता जा रहा है।
ब्रज क्षेत्र पर अपने व्यापक शोध का उल्लेख करते हुए उन्होंने अपनी पुस्तक “मुगल काल में ब्रज भूमि: राज्य, किसान और गोसाईं” को विशेष रूप से महत्वपूर्ण बताया। यह पुस्तक ब्रज क्षेत्र के आर्थिक ढाँचे, सामाजिक संरचना, धार्मिक संस्थाओं, मुगल प्रशासन और गाँवों की गतिशीलता पर आधारित एक गहन अध्ययन है। उन्होंने कहा कि भारत में इतिहास शोध की संभावनाएँ बहुत व्यापक हैं, लेकिन यह ज़रूरी है कि अध्ययन तथ्यपरक हों, न कि मनगढ़ंत।
