13 अगस्त 2022

हॉकी :अतीत को याद करते रहने से कहीं जरूरी भविष्‍य के रोडमैप को तैयार करना

 -- प्रवासी भारतीय ही हैं ,आस्‍ट्रेलियन हॉकी की 'सुपरमेसी' की वजह  

पूर्व भारतीय हाकी टीम टीम
कप्‍तान जगवीर सिंह

(एल एस बघेल) आगरा । एक समय था, जब विश्व हाकी पर भारतीयों की धाक थी । एक बार नहीं अपितु आठ बार  भारत  ओलंपिक खेलों  में हॉकी  चैंपियन बना  । वह दौर अवरस्‍मरणीय   है, जब दादा ध्यानचंद और उनके साथियों की तूती बोलती थी । लेकिन देश के आजाद होने के बाद कुछ भारतीय आस्ट्रेलिया में जाकर रहने चले गए । वे खुद ही नहीं गये कई अन्‍य आदतों और मौलिक जानकारियों के साथ ही अपने साथ यहां से  हॉकी खेलने की शैली को भी ले गये जिसे उन्‍होंने वहां भी अपने खेल में अपनाया। 

जाहिर है अगर खेल तकनीकि और शैली हाथ में हो तो उसका स्‍वभविक असर भी होता है। परिणाम स्‍वरूप आस्‍ट्रेलियन टीम में अपनी जगह बनाकर इन प्रवासियों ने हॉकी में अपने मूल वतन की टीम के सामन ही नहीं किया ,अपने कौशल का करिश्‍मा दिखाना शुरू कर दिया। फलस्‍वरूप 'कंगारू'  अंतर्राष्‍ट्रीय मैचों में विजेता बनाने लगे । जीत का यह सिलसिला तब कीरिश्‍माई और अचम्‍भित करने वाला सा लगने लगा जब कि आस्‍ट्रेलियन टीम ने कॉमन्‍थ वैल्‍थ गेम में पहली

जीत हॉसिल की। अब तक भारत के ये 'प्रवासी सिंह'   आस्ट्रेलिया को कामनवेल्थ गेम में लगातार सात बार चैंपियन बना चुके हैं।

 हॉकी केेस्‍वर्ण की कमी अखरी   

जब हम बर्मिंघम के खेल पदकों की जीत का जश्‍न मला रहे थे तब अनायास ही एक बात हर भारतीय को जरूर अखर रही थी कि काश हॉकी का स्‍वर्ण पदक भी हमारे पास होता। हॉकी को मानस रूप से किसी भी खेल की तुलना में हर भारतीय एक विशिष्‍ट दर्जा देता है और अंतर्राष्‍ट्रीय  टूर्नामेंटों में इसकी टीमों को जीतते ही देखना चहाता है। बर्मिंघम में पुरुष हॉकी के समान ही महिला हॉकी में भी स्‍वर्ण से दूर रहे। 

नयी सुबह का इंतजार

खैर कोयी बात नहीं खेल में हारजीत तो लगी ही रहती है  ,अब 'बर्मिंघम ' के बाद नयी सुबह का इंतजार शुरू हो गया। आजादी के 'अमृत वर्ष' की पूर्व वेला में अपने उस स्‍वर्णिम अतीत को तो याद कर ही सकते है,जिसमें भारतीय टीम ने ऑलंपिक में उपनिवेश की टीम के रूप में भाग लिया था। दरअसल 1928 से शुरू हुआ यह सिलसिला केवल जीत ही नहीं थी ,अपितु भारत की अंतर्राष्‍ट्रीय पहचान बनाने की 'लीगेसी' थी।  

जिसके माध्‍यम से हिटलर ने ग्रेट ब्रिटेन की खिल्‍ली उडाने में कोयी कसर नहीं छोडी थी,यह बात अलग है कि ध्‍यान चन्‍द ने भारतीय हॉकी का अंतर्राष्‍ट्रीय राजनीति में दुरोपयोग को न केवल बचाया अपितु खेल भावना के लिये भारत को एक विशिष्‍ट पहचान दी।    (1928 से 1932, 1936 लगातार तीन ओलंपिकों में भारत ने स्‍वर्ण पदक जीते थे। दूसरा विश्व युद्ध के चलते कुछ वर्षों तक ओलंपिक खेल नहीं हुए । लेकिन इसके पश्चात 1948, 1952, 1956 और 1964 के ओलंपिक खेलों में हमने चैंपियन बनते रह कर अपना दबदबा कायम रखा ।)

स्‍वर्णिम युग स्‍थायी नहीं होते हॉकी में भारत के वर्चस्‍व के साथ भी यही हुआ। देश के कई क्षेत्रों में गिरावट आना शुरू होने के साथ ही हॉकी में भी गिरावट आयी ।

ऑस्‍टेलियन हॉकी

  आजादी के अमृत वर्ष में भी जहां अंतर्राष्‍ट्रीय तौर पर एक अविकसित देश से विकासशील देश की पहचान के पायेदान पर ही पहुंच सके हैं, वहीं आस्‍ट्रेलिया एक विकसित देश है, फलस्‍वरूप अपने खून में हॉकी का कौशल साथ लेकर वहां जा बसे भारतीयों को अपना शौक निखारने और धाक जमाने के भरपूर अवसर सहज में ही उपलब्‍ध हो गये। 

 पूर्व आलंपियन जगवीर सिंह हॉकी की जमीनी हकीकत को गहराई से जानते हैं। एक पुस्‍तक का हवाला देते हुए बताते हैं कि आस्‍ट्रलिया की मौजूदा सुपरमेसी की स्‍थिति एक ही दिन में नहीं बनी । वह बताते हैं कि 1947 में जब देश आजाद हुआ तो काफी संख्या में लोग आस्ट्रेलिया चले गये। उन्होंने वहां जाकर भारतीय हाकी शैली का प्रचलन शुरू कर दिया । हालांकि उस समय आस्ट्रेलियाई हाकी शैली अलग थी ।लेकिन बदलावों ने जगह बनाना शुरू कर दी।  1956 के मेलबोर्न ओलंपिक में आस्ट्रेलियाई टीम में 4-5 एंग्लोइंडियन खिलाड़ी थे । हालांकि इस ओलंपिक में भी हाकी का स्वर्ण भारत ने ही जीता था लेकिन यहीं से इसके हमारे हाथ से फिसलने की शुरूआत हो चुकी थी। 

 श्री जगबीर सिंह का कहना है कि आस्ट्रेलिया का पैनाल्टी कार्नर का बैस्ट स्कोरर माना जाने वाले खिलाड़ी क्रिस सेरेलो की मां कोलकाता की रहने वाली थी। सेरेलो जगबीर सिंह की कप्तानी में पंजाब वारियर से खेले । कोरोना से पहले आगरा में भी उनकी टीम ने एक प्रदर्शनी मैच खेला था। 

जगवीर याद करते बताते है कि भारतीय हाकी शैली के दम पर ही 1970 से आस्ट्रेलिया ने हाकी में बढ़त लेना शुरू कर दिया था । 1976 में ही उनके यहां एस्ट्रोटर्फ लग गए थे। जबकि भारत में पहली बार एस्ट्रोटर्फ 1982 में आया ।आस्ट्रेलियाई हॉकी परपक्‍वता की ओर उन्‍मुख थी , वहां की  टीम में टेरी वाल्श, पाल गोडाइन आदि कई एंग्लो इंडियन रहे हैं। कामनवेल्थ हाकी का तो आस्ट्रेलिया बादशाह बना ही हुआ है। 2004 के एथेंस ओलंपिक खेलों में भी उन्होंने हाकी का स्वर्ण पदक जीता था ।जगबीर सिंह का कहना है कि  इंग्लैंड में हुए कामनवेल्थ गेम्स में हाकी के सेमीफाइनल मुकाबले में भारतीय हाकी टीम दक्षिण अफ्रीका से कड़े मुकाबले में जीतकर फाइनल में पहुंची थी । उसी से अंदाजा लग गया था कि फाइनल में आस्ट्रेलिया के सामने टिकना कितना मुश्किल है और हुआ भी वही, कंगारूओं ने हमें 7-0 के भारी अंतर से पराजित कर स्वर्ण पदक हथिया लिया। हमें रजत पदक से ही संतोष करना पड़ा ।  कुल मिलाकर आस्ट्रेलिया के एंग्लो इंडियन ने ही भारत और पाकिस्तान की हाकी को पीछे धकेल दिया है ।

अब तो आस्‍अ्रेलियनों में बढ रही है रुचि

  हॉकी में आस्‍ट्रेलियन की बढती रुची के कारणों का आंकलन एक समय भारतीय हाकी टीम के कोच रहे आस्ट्रेलियाई माइकल नार्ब्स के कथन से ही लगाया जा सकता है,जो कहते है कि मुझे हाकी खेलने की प्रेरणा ही भारतीयों से मिली । इसीलिए तो कहा जाता है कि हाकी भारतीय खेल था । लेकिन अब उसी में हम पिछड़ गए । पिछले ओलंपिक में भारतीय हाकी टीम ने कांस्य पदक जीता था।

रोड मैप तैयार हो

समय बदलना है,नये दौर की शुरूआत होनी है,हॉकी वालों को भी अपने खेल को लेकर काफी उम्‍मीदें हैं, लेकिन इसके लिये  स्‍वर्णिम युग में बापस लौटने का 'रोड मैप ' अभी बनाया जाना है।

 खेल नीति और खेल प्रबंधन निकायों की भूमिकाओं में बडे बदलाव की जरूरत है,खेल के मैदान और खिलाडियों के बीच के तंत्र कार्यकलापों में बदलाव लाना होगा। जगवीर सिह का कहना कई माइनों में एक दम सही है, कि संसाधन बढाईये और खिलाडियों को समर्पण से अपनी साधना का भरपूर मौका दें फिर उनसे उम्‍मीदें संजोयें।