22 दिसंबर 2015

‘आस्ताना ए आलिया ' चौखट जिसके पीछे बसती है ‘आत्मीयता और सुकून

--‘अकबराबाद के आगरा में तब्‍दील हो जाने के बावजूद जीवंत हैं परंपरायें

(सज्‍जादा नशीं हाजी सैय्यद अजमल अली शाह )

आस्‍ताना ए आलिया ‘)


(रिपोर्ट  एवं फोटो:असलम सलीमी )
आगरा: रूहानी सुकून, शांती और प्रेम अभिव्‍यक्‍ति  के लिये विख्‍यात 'आगरा' सूफी संतों की जमीं के रूप में भी एक नायब पहचान रखता है। हकीकत में ये ही तो वे हस्‍तियां जो निर्वाकार भाव से हमेशा सक्रिय रहकर इंसानी जिदगी की बेहतरी के लिये सोचती रहती हैं। इनके जिन इबादतगाहों और चौखटो से होकर शहर की यह खासियत मानीजाती है उनमें से ही एक है तिलक बाजार में मावा कटरा स्‍थित आस्‍ताना ए आलिया भी शामिल है। जहांगीर के शासन काल से गंगाजमुनी -तहजीब का पर्याय बनी सूफियाना संस्‍कृति का यह सिलिसला अकबराबाद से
आगरा हो जाने तक का सिलसिला जारी ही नहीं आगरा की परंपराओं को मजबूत करने में अपना योगदान देता चला आरहा है।

  सज्‍जादा नशीं हाजी सैय्यद अजमल अली शाह नियाजी जिन्‍हे शाह साहब के नाम शहरवासी ज्‍यादा जानते हैं , भी अपने पूर्वजों की परंपरा का निर्वाहन कर रहे हैं।वक्‍त के साथ जगह जगह अपने पूर्वजो की विरासत बांटने के लिये उनके बेटे सैय्यदफैजी अली शाह नियाजी जहां जरूरी होता है अपने पिता का प्रतिनिधित्‍व करने पहुंचते हैं। फैजी के नाम से अपनी अलग शख्‍सियत बनाचुके अपनी खानदानी तहजीब और अध्‍यात्‍मिक विरासत नेकबन्‍दों के हमकदम होने के लिये कम उम्र में ही खास पहचान बना चुके हैं। उनका जो तौर तरीका है उससे लगताहै आने वाले वक्‍त में तमाम मुश्‍किलातों का समाधान वे उपलब्‍ध करवा परंपरा को और उंचाई पर ले जायेंगे।
वर्तमान में आस्‍ताना ए आलिया आगरा ही नहीं दूरदराज से आने वालों का एक जाना पहचाना स्‍थान है,जिससे तमाम परंपराये जुडी हुई हैं। जहां शहर भर के लोग अब भी रोज पहुंचते रहते हैं और सज्‍जादानशीन मुश्‍किलाते दूर करने को परवरदिगार से दुआ और इबाबत करने को हमेशा तत्‍पर रहते हैं।सलहा मशवरा लेने आने वालों का सिलसिला रोज ही बना रहता है।
शांत और सौम्‍य प्रवृत्‍ति
शज्‍जादा नशीं शाह साहब निहायत शांत और सौम्‍य प्रवृत्‍ति के धनी हैं, वह उस जिम्‍मेदारी को जानते हैं जो कि उनके पितामाहों ने मुगल बाहशाह जहांगीर के शासन काल से अल्‍लहा की इबादत और इंसानी खिदमत  परंपरा को शूरू की थीं। वक्‍त बदला हुकूमते आकर बदलती गयीं किन्‍तु उन्‍होने अपनी गद्दी की मर्यादा को कभी संकुचित नहीं होने दिया। मुगल साम्रज्‍य तो ईस्‍ट इंडिया कंपनी का शासन शुरू होने से पूर्व ही खत्‍म हो गया था।किन्‍तु जब मावा कटरा की इस गद्दी पर पहुंचने के लिये सीढिया तय कर दालान में ऊपर पहुंचते हैं तो एक दम ढाई सौ साल पुरानी संस्‍कृति से रू ब रू होते हैं जिसमें नफासत ,इंसानियत और आत्‍मीयता सुवासित है। सूफी इबादत विधाओं के बारे में एम ए बेग(Moazziz Ali Beg) के द्वारा लिखित एवं प्रकाशित ' स्‍प्रीच्‍युअल रूट आफ आफ नेशनल इंट्रीगेशन ' में इस गद्दी का यहां की लौकिक अवधारणाओं के साथ उल्‍लेख है।
शाह साहब पेशे ये एक शिक्षक हैं,शोएब इंटर कालैज में अपनी सेवाये देते हैं अत: स्‍वभाव और बर्ताव से शिक्षण उनकी जीवनशैली का हिस्‍सा बन चुका है। वैचारिक भटकन को दूर कर सही रास्‍ता बताना उनका ध्‍ये है।वैचारिक आदान प्रदान का मौका और जरूरत मन्‍दों को मार्गदर्शन इस देहरी पर पहुंचने वालों का मजहब की सीमा लांघ हर सवाली का हक सा बन चुका है।
कौन नहीं जानता मैकश अकबराबादी को
सूफी परंपरा की इस गद्दी आस्‍ताना ए आलिया के सज्‍जादा नशीं रहे शाह साहब के बाबा  मैकश अकबराबादी  को शायद ही आगरा के उर्दू अदब और खास कर शयरी को जानने वाला हो जो नहीं जानता हो । उन्‍होंने लिट्रेचर को तो बहुत कुछ दिया  किन्‍तु सबसे बडी जो नियामत दी वह है दिल्‍ली की खामोश और गैरजरूरी जमघट से घिरी मिर्जा गालिब की हवेली को उससे जुडी पुरानी शौहरत के माकूल रौनक । मैकश साहब का हर दिन लिट्रेचर और खिदमत को ,1991 में इंतकाल होने तक समर्पित रहा।
खान जहां लोदी था मुरीद था
मुगल शसन में बहुत सी धार्मिक शख्‍सियतें 'मदीना शरीफ -अरब' से आयीं इन्‍ही में इस सूफी परंपरा के परिवार के बुजुर्ग सैयद हुसैन मदानी साहिब भी थे। जहांगीर के दरबार में खास हैसियत रखने वाले कई सूबों के सूबेदार रहे मुख्‍य दरबारी खान जहां लोदी इनके मुरीदो में से एक थे। शुरू में यह इन्‍हीं के उस बडे महल में रहे जो कि एक उंचे टीले पर था जिसे इतिहास में लोदी खान का टीला ( घटिया आजम खां से सिटीस्‍टेशन रोड की ओर जाने वाले रास्‍ते के बाई ओर अब भी रह गये टीलों में से एक)के नाम से अब तक उल्‍लेखित किया जाता है । जब जहांगीर के बाद और शाहजहां  गद्दी पर बैठा तो उस वक् वह दरबार में हाजिर नहीं हो सका जिसे कि विद्रोह माना गया राजनैतिक कारणो से खान जहां लोदी शहजहा का एतबार हांसिल नहीं कर सका । 1631 मं कलिंजर में हुए युद्ध में वह मारा गया था। विद्रोही हो जाने के बाद शाहजहां ने उसके यहां बने  महल को ध्वस् करवा दिया बाद में वहां लाइब्रेरी (कुतुब खना ) यहां बनाया गया।खान परिवार तो यहां रहता ही नहीं था।
कुतुब खाना बनाने में भी रहा योगदान
  जो अरबियन मेहमान यहां थे उनका इस कुतुब खाना(लाइब्रेरी) के बनाये जाने में काफी योगदान माना जाता है। इसमें बहुतसा पठनीय एवं संग्रहित कितब अन् मैटीरियल शाह परिवार का ही था। शाह परिवार तब तक आगरा में काफी प्रतिष्‍ठा हांसिल कर चुक था। बदलाव के दौर में वह ताजगंज स्‍थित रेशम कटरे की एक महलनुमा हवेली में बसा दिया गया। यह वह दौर था जब कि ताजमहल को बनाये जाने का काम जोरों पर था और ताजगंज में खास लोगों को ही शाही परिसरों में रहने का मौका हुकूमत के द्वारा दिया जाता था।
बाद में समय अंतराल के बाद इस सूफी परिवार की कुछ पीढियों ने ख्‍वजा की सराय स्‍थति कीर्ति नगर की एक हवेली में रहकर वक्‍त गुजारा। इसके बाद से यह परिवार मावा कटरा में आ बसा और पीढी  दर पीढी अपनी खास पहचान के साथ मावा कटरा में ही रह रहा है।
जमीदार का रिश्‍ता तब्‍दील हो चुका है आत्‍मीयता में

अब हालांकि हाजी सैय्यद अजमल अली शाह के परिवार और गद्दी का रसूख 'आम और खास' में बहुत है किन्‍तु पिछली सदी में देश आजाद हो जाने  के बाद भी आगरा जिले में जमींदारी उन्‍मूलन कानून लागू हो जाने से पूर्व तक जलवा कुछ और ही था। इस परिवार के पास बोदला सहित तीन गांव की जमींदारी थी थी। दो की कुछ समय पहले खत्‍म हुई किन्‍तु बोदला के जमींदार के रूप में कादिर साहिब का नाम काफी बाद तक सरकारी रिकार्डो में दर्ज रहा। उस समय की याद करते हुए शाह साहब कहते हैं कि जब भी बोदला उनका पहुंचना होता था उनकी सादगी पसंदगी को नजरअंदाज कर गांव वाले बहुत ही इज्‍जत से पेश आने के साथ ही खिदमत को तत्‍पर रहते थे। उनको उनसे (शाह साहब से) शांति सुकून की दुआ करने की ख्‍याइश रहती थी।अब तो खैर समय बदल गया , न वहां भट्टे बचे है, नहीं खेती। तेजी के साथ शहरी संस्‍कृति जा पहुंची है बोदला। जो भी हो पूरे इलाके में अब भी शाह साहब का रसूख बरकरार है।हां इतना जरूर है कि राजस्‍व अधिकार का रिश्‍ता इबादत और आत्‍मीयता के रिश्‍ते मे तब्‍दील हो चुका है।