-- दो सौ साल से गोटेवाला परिवार रहता हैं,'बरकत्त ' का प्रतीक इस पांच मंजिला भवन में आगरा हैरीटेज वॉक का 'लैंडमार्क' गोटेवालों की पंचमिला
हवेली । (इन्सेट) में सज्जामय झरोखा।
( राजीव सक्सेना) आगरा: महानगर के व्यस्ततम मौहल्लों में रावतपाडा मुख्य है।अंग्रेजों के द्वारा 1804 में आगरा का प्रशासन अपने हाथ में लिये जाने के बाद आगरा के अनेक मौहल्लों और कारोबार केन्द्रो की स्थतियां बदली किन्तु राबत पाडा के महत्व में कोयी अंतर नहीं पडा। समय के साथ इसका व्यवसायिक केन्द्र के रूप में महत्व बढता ही गया। यहां रहने वाले भी खूब तरक्की करते गये। बढती जरूरतों और संपन्नता के क्रम में यहां कई निर्माण हुए जो समय के साथ अपने आप में अब आकर्षण माने जाते हैं।
रावतपाडा की मुख्य सडक पर मसालों के लिये
प्रख्यात फर्म गज्जोमल मसाले वालो के ठीक सामने खडी हुई है इसी प्रकार का अकर्षण मानी जा रही प्रतिष्ठित 'गोटेवाला परिवार ' की पांच मंजिला हवली । हवेली के निचले खंड के सडक की ओर के भाग में अपने मसालो के लिये प्रख्यात फर्म 'मुंशी लाल पन्ना लाल मसाले वाले ' का मुख्य कारोबार स्थल सौ साल से संचालित है। वैसे आगरा भर में वैश्य परिवार की इस संपत्ति को बरकत देने वाला माना जाता है और किसी न किसी रूप में इससे और इसमें रहने वालों से संपर्क में रहने के उत्सुक रहते हैं।दो सौ साल से कुछ पूर्व इस पांच मंजिला हवेली का निर्माण हुआ था। पत्थर, चूना, ककईया ईंट का निर्माण सामिग्री के रूप में इस्तेमाल का प्रचलन था। पत्थर के स्लैबों और तराशे गये पत्थरों के मेहराव मजबूती के साथ शोभा बढाने के लिये इस्तेमाल किये जाते थे।
सबसे बडी बात यह है कि जिन बुजुर्गों ने यह बनवायी थी ,वे परिवार की भावी पीढियों को पुख्ता आवास व्यवस्था देना चाहते थे और सातवीं पीढी का भी इसे आवास के रूप में इस्तेमाल में लाते रहना बनवाने वालों की दुरदर्शिता का अपने आप में परिचायक है।
हवेली निर्माण का समय वह काल था जब आगरा में मराठा शासन था और ईस्ट इंडिया कंपनी 1804 से अंग्रेजी शासन की शुरूआत करने वाली थी। यह वह काल था जब कि हिन्दू मतालम्बी अपने धर्म और विश्वास के साथ जीवन यापन करने करने में अपने को स्वतंत्र मान रहे थे, सहष्णुता का भाव समाज में था। यही कारण था कि हवेली के निर्माण के साथ ही एक मन्दिर का निर्माण भी करवाया गया। संभवत: पहले यह छोटे आकार का परिवार,कुंटम्बी जनों की पूजापठ सम्बन्धी जरूरतों तक सीमित करने वाले आले या पूजा के कोने के रूप में रहा होगा रहा होगा किन्तु अब यह एक बडे और प्रमुख आस्था स्थल का रूप ले चुका है।
ठा.श्री राधामोहन जी विराजमान मन्दिर , गोटेवालों की हवेली का खास अकर्षण। |
स्व राजनारायन जी अग्रवाल एवं स्व राधागोविद जी अग्रवालगोटेवाला परिवार के आदर्श स्थंभ |
कारोबारी संस्कृति रावतपाडा रोजमर्रा की जरूरत की वस्तुओं की थोक मंडी के रूप में विकसित हुआ । मसाले, सजावट का सामान, इत्र सहित श्रंगार का सामान ,धातुओं को गलानेश्वैद्यों के द्वारा उपचार में उपयोग लायी जाने वाली जडी बूटियों ,वैद्यमक उपचार पद्यितयों में इस्तेमाल किये जाने वाली अन्य सामिग्रियों तथा रंगपेंटिग में इस्तेमाल किये जाने वले रासायन के थोक व्यापार का केन्द्र था।
रावतपाडा में राजस्थान के मारवाणी पैटर्न की गद्छियों का प्रचलन था। जहां उपने सामान को बेचने वाले अपना माल सुपुर्द कर देते और इत्मीनान से कारोबारी मेहमान के रूप में नहाते ,धोते और भोजन करते । मेजवान की रसोईयों में ब्राह्मण रसोईये ही खाना बनने और परोसने के लिये इंतजाम किये हुए थे। गद्दियां ज्यादातर हवेलियों के अंतरिम भाग के रूप में ही होती थीं। इनमें बैलगाडी या ऊंट गाडी खडा करने का इंतजाम होता था।मुगल सम्राट अकबर के काल से संचालित यह व्यवस्था मारवाण की हवेली संस्कृति से मेल खाती हुई थी। आओ इत्मीनान से कारोबार करो ठहरो,गद्दी की शोभा बढाकर जब सुरक्षित समझों गंतव्य को रवाना हो जाओं। महानगर में 1923 में बिजली आने तक ही नहीं होटलों के बहुप्रचलन होने के बाद तक यह प्रभावी रही। महानगर में बिजली आ जाने के बाद भी म्यूनिस्पैल्टी 1959 तक यहां लैंपों से स्ट्रीट लाइटिंग करवाती रही। गांधी जी भी बैद्यों से इलाज को आये थे गांधी जी ने आगरा की चार यात्रायें की थीं ।इनमें 1929 में की गयी यात्रा आगरा में अपने पेट का इलाज करवाने के लिये ही की थी। रावतपाडा के किसी वैद्य ने ही उन्हे दबा उपलब्ध करवायी और जमुनापरी बकरी के दूध से बने दही के सेवन का परामर्ष दिया था।गांधी जी ने अपनी इस यात्रा के दौरान वैद्यों के द्वारा ही जांचे परखे यमुना पार मेहराजी की कोठी के परिसर में स्थित एत्मादौला स्मारक की वाऊंड्री से लगे कूंए का पानी पीने की रिक्मंडेशन की थी। दस दिन गांधी जी यहां रहे थे और कितने स्वस्थ्य हो पाये किन्तु बाद में भी यहां की दबाओं का जरूर सेवन करते रहे।
बताते है कि रावत पडा में पान की बिक्री का प्रचलन पूजा की सामिग्री के भाग में शुरू हुआ था बाद में वैद्यिक उपचारों मे भी इसका उपयोग बढने से बढा और अब यह पास में ही (आगरा फोर्ट) के जामामस्जिद छोर के गेट के पास 'पान दरीबा' के नाम प्रचलित पान का थोक कारोबार स्थल है। मन्कामेवर मंदिर इसक्षेत्र की संस्कृति का अभिन्न अंग है।मान्यता है कि द्वापर काल में भोले नाथ ने स्वयं आगरा वासियों की मनोकामना पूरी करने के लिये यहां के शिवलिग की स्थापना की थी। बदलते दौर में भी यहां की कुछ खासियतें बरकरार रहीं । विदेशों के समान ही देश के भी अधिकांश महानगरों में प्रचलित मॉल संस्कृति, शो रूम, डिस्पले लिये सजे हुए शोकेस और खरीदारी को प्ररित करने वाली विंडो शापिंग संस्कृति से परे खरीदारो और विक्रेताओं के बीच चल रही प्रक्रियायें किसी पर्यटक के लिये अपने आप में आकर्षण का करण बनजाती है। सिर और ढकेलों पर बोरियां एक स्थान से दूसरे स्थान पर लाना लेजाना यहां का रोजमरा्र का काम भी अपने आप में कम दिलचस्पी नहीं है। पचास के दशक तक रावतपाडा में घेडा गाडी देखा जाना आम बात थी । ट्टुओं से ढोय जाने वाले इक्कों और बैलगाडियों का आना जाना प्रचलन में था। किन्तु समाय के साथ हालात एक दम फर्क हो गये। बाजार में दो पहिये के बावहन तो अब भी आते जाते है लेकिन चार पहिये के वाहनों को पूरी तरह से प्रतिबंधित कर दिया गया है। हथठेला पर सामान बेचने की परिपाटी में भी कमी आ रही है ।पुलिस के इंतजामों और सरकारी बंदोबस्त से बेखबर रावतपाडा बाजार के दूकानदार और उनके ग्रहको की अपनी दुनियां है जिस पर खास फर्क नहीं पडता। राबत पाडा का बसना रावतपाडा बसने का मूल कारण तो इसका यमुना तटीय और मन्कामेश्वर मन्दिर का होना ही है। वेसे उपलब्ध जानकारी के अनुसार रावतपाडा की बसावट उस समय से शुरू हुई जब किले के पास दिल्ली गेट के सामने के मैदान को अकबर के द्वारा उस ब्रह्मण को आवंटित किया गया जिसने बफादारी कर कर उसकी जान बचायी थी। दरअसल अकबर जब आगरा से कुछ दूर शिकार के लिये जंगल में निकला हुआ था उसी समय उसे के बेटे सलीम ने विद्रोह का झंडा उठा लिया और उसकी हत्या करवाने को अपने विश्वसनिय भेजे ।
लेकिन एक ब्राह्मण के द्वारा अकबर के प्रति पूरी विश्वसनियता दिखा कर उसे न केवल विद्रोहियों से बचाया गया गया अपितु उसके सैनिक आने तक सुरक्षा भी दी गयी । बताते हैं कि अकबर नमक हलाली करने वालों को रावत की उपाधि से विभूशित करता था इसी से उन ब्राह्ममण को सममानित किया। वैसे सनाढ्य ब्राह्मणों के उपलब्ध उपनामों की सूची में रावत उपनाम के रूप में दर्ज है । इस लिेये रावतपाडे मे बसने वाल पहले ब्राह्मण परिवार का रावत उपनाम वाला सनाढ्य ब्राह्मणहोना भी यहां का नाम रावतपाडा पडजाने के लिये अपने आप में पर्याप्त प्रासंगिक है।
अकबर के समय से आरंगजेब तक के रावतपडा में कारोबर का स्थान न होकर पूजापाठ और दरबार में सरकारी काम करने वाले बौद्धिकता संपन्न मुलाजिमों के लिये ज्यादा जाना जाता था। लेकिन ओरंगजेब के समय धर्म परिवर्तन के मुददे पर उन्हे अपने बसे बसाये आशियानों को छोड कर भागना पडा ।ज्यादातर चम्बल से लगे भागों, शिवपुरी और कानपुर की ओर भागे।बाद में जब औरंगजेब की मृत्यू के बाद मुगलों का पतन शुरू हुआ तो बन्द हवेलियों के फाटक खुलने लगे। रावतपाडा में पुन:रौनक लौटी। लेकिन बदली देश ,काल ,स्थतियों के अनुसार अब सनाढ्य ब्राह्मणों के पूजापाठ और बौद्धिकता वाले स्थान के साथ ही अनाज दाल मसाले के थोक कारोबार की मंडी के रूप में भी पहचान बनाने लगी थी ।
आज का रावत पाडा इसी संस्कृति का धनी है हिन्दू बहुल धर्म प्रमियों औ करोबार यहां रहने वालों की जीवन चर्या का अभिन्न अंग हैं। बडी संख्या में वैश्यों की भी मौजूदगी है जिनमें से कई परिवारों के पास तो सात पीढियों से यहीं से कारोबार करने के साक्ष्य भी हैं।