भारतीयों में मातृत्व के प्रति सम्मान की अभिव्यक्ति 'भारत माता की जय '
भारत माता आधारभूत कल्पनाओं में |
( राजीव सक्सेना) आगरा: भारत माता के प्रति सम्मान करने की प्रवृत्ति सामान्य तौर पर भारत के आम नागरिकों में विद्यमान है। राजनैतिक जलसों , सामाजिक समागमों के द्वौरान 'भारत माता ' की जय के उद्घोषा करना नागरिकों के द्वारा आत्म सम्मान की अभिव्यक्ति और राष्ट्र के प्रति आभार का प्रकट्य माना जाता है। अब एक प्रश्न जो अक्सर हम में से अनेक के मन में जब तब उठता है कि ' भारत माता' की अवधारणा क्या केवल काल्पनिक है या उसका कोयी धार्मिक,अध्यात्मिक और संवैधानिक या कानूनी आधार भी है।
भारत माता की कल्पना :
भारत माता की कल्पना :
भारत माता की परिकल्पना सबसे पहले आनन्द मठ उपन्यास में की गयी मानी जाती है और यह बहुप्रचारित भी है। लेकिन इस उपन्यास के पहले से ही भारत माता की कल्पना की जा चुकी थी। अपने समय के प्रख्यात बंगला साहित्यकार स्व किरन चन्द्र बनर्जी (কিরণ চন্দ্র বন্দ্যোপাধ্যায়) का नाटक 'भारत माता' सन् १८७३ में सबसे पहले खेला गया था। हकीकत में भारत माता की अध्यात्मिक और लौकिक साहित्य में की जाती रही परिकल्पनाओं को आज के मूर्ति रूप में आने का मूल आधार
यही नटक बना।
इस नाटक के बाद बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय (बंगाली: বঙ্কিমচন্দ্র চট্টোপাধ্যায়) (२७ जून १८३८ - ८ अप्रैल १८९४)जो कि बंगला भाषा के प्रख्यात उपन्यासकार, कवि, गद्यकार और पत्रकार थे, ने भारत के राष्ट्रीय गीत 'वन्दे मातरम्' उनकी ही रचना की। जो कि कलांतर में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के काल में क्रान्तिकारियों का प्रेरणास्रोत बन गया था। रवीन्द्रनाथ ठाकुर के पूर्ववर्ती बांग्ला साहित्यकारों में बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय जी का अन्यतम स्थान है।संस्कृत बाँग्ला मिश्रित भाषा में रचित इस गीत का सबसे पहला प्रकाशन सन् १८८२ में उनके उपन्यास आनन्द मठ में अन्तर्निहित गीत के रूप में हुआ ।
दरअसल बंगाल 19वीं सदी के पहले पचास साल अंध विश्वास ,पाखंडो और जागरदार- जमीदार तंत्र के अनुकूल व्यवस्थाओं से प्रभावित था। किन्तु राजाराम मोहनराय के प्रादुर्भाव से यहां नव जागरण का एक ऐसा दौर शुरू हुआ जो रवीनद नाथ टैगोर के देहवसान होने तक प्रवल रहा। इस दौर में सकारात्मक कल्पनाओं
,सर्जनशीलता और विज्ञान आधारित दृष्टिकोण को मान्यता देने की सहज प्रवृत्ति बंगाल में रही।
-- आगरा और भारत माता की परिकल्पना
आगरा में भारत माता की जय का उद्घोष तो न जाने कितनी बार और कितने अवसरों पर होता रहा होगा किन्तु प्रतिमा व मन्दिर के रूप में भारत माता की कल्पना को धार्मिक सहष्णुता के साथ साकार करने का काम मन्कामेश्वर मठ प्रशासक श्री हरिहर पुरी जी और महंत श्री योगेश पुरी जी के द्वारा किया गया।
शिवभक्त और सनातन संस्कृति के प्रवृत्तक होने के साथ दोनों ही राष्ट्रवादी विचाराधारा के हैं। देश विदेश मे रही इनकी घुम्मकडी ने इसे ओर अधिक पुष्ट किया है। यही कारण है कि आगरा में रावत पाडा स्थति हिन्दुओं के इस मुख्य आस्था स्थान यानि मन्दिर परिसर में उन्होंने' भारत माता' की प्रतिमा 2013 में स्थापित करवायी थी ।
उ प्र में स्थापित होने वाला यह दूसरा भारत माता मन्दिर है। इसका उद्घाटन तत्कालीन थल सेनाध्यक्ष जनरल वी के सिह ने मन्कामेश्वर मन्दिर पहुंच कर स्वयं किया था। संभवत: यह पहला अवसर था जबकि पूर्ण सैनय सुरक्षा के बीच पूरे नागरिक शिष्टाचार के तहत कोयी थल सेना अध्यक्ष मन्दिर परिसर में पहुंचा हो। प्रख्यात स्वतंत्रता सेनानी श्रीमती सरोज गौरिहार ने इस कार्यक्रम की अध्यक्षता की थी ।
( भारत माता का पहला मन्दिर वराणसी में स्थापित किया गया था।इसका निर्माण प्रख्यात हिन्दी दैनिक 'आज' समाचार पत्र के संस्थापक संपादक डाक्टर शिवप्रसाद गुप्त द्वारा कराया गया था और उदघाटन सन 1936 में गांधीजी द्वारा किया गया। इस मन्दिर में किसी देवी-देवता का कोई चित्र या प्रतिमा नहीं है बल्कि संगमरमर पर अभिवाजित भारत का भौगगोलिक नक्शा है। वैसे भारत माता का एक अन्य भव्य मन्दिर हरिद्वार में है जिसका उदघाटन पूर्व प्रधानमंत्री स्व श्रीमती इन्दिरा गांधी ने 1983 में किया था।इसममें भारत माता की प्रतिमा स्थापित है।)
--दीवानी चौराहे पर भारत माता प्रतिमा
दीवानी चौराहे पर भारत माता की प्रतिमा की स्थापना सन 2000 में की गयी । यह प्रतिमा दो बार अवंछनिय तत्वों के द्वारा सांप्रदायिक तनाव फैलाने के उद्येश्य से तोडी जा चुकी है। 2016 में जब यह दुबारा तोडी गयी तब इसे लगवाये जानने के लिये स्वतंत्रता सेनानी स्व चिम्मन लाल जैन को लमबे समय तक अनशन पर बैठना पडा।
बादमें प्रशासन के द्वारा इसे जल्दी ही बदलवा कर नयी प्रतिमा लगवाये जाने के अश्वासन के बाद ही स्व जैेन का अनशन समाप्त हो सका था। भाजपा की वरिष्ठ नेत्री डा कुन्दका शर्मा ,जो कि तत्कालिक स्थतियों में निर्दलीय तौर पर अगरा उत्तर से चुनाव लड रही थीं ने स्व जैन के अनशन को अपना समर्थन दिया था। वर्तमान में चौराहे का आईलेंड भारत विकास परिषद को नगर निगम के द्वारा सौंदर्यीकरण के लिये दिया हुआ है।
--भारत माता आौर आगरा
(शाहजहां मृत्यू शैया पर साथ मे जहांआरा) अभनींद्र नाथ टैगोर का चित्र |
कवींन्द रवीन्द के भतीजे अवनीन्द्रनाथ ठाकुर (१८७१-१९५१) जो कि कलकत्ता में जन्मे चित्रकार थे। ने ही सबसे पहले भारत माता का चित्र बनाया था। इस चित्र का आधार साहित्यकार स्व .किरन चन्द्र बन्दोपाध्याय का नाटक 'भारत माता' एवं बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय के प्रख्यात उपन्यास आनन्द मठ का पद्य प्रसंग 'बन्दे मातृम ही था।
साहित्यिक अभिरुचि वाले बंगाल आर्ट स्कूल के अभनींद्र नाथ टैगोर ने भारत माता का वह पहला चित्र बनाया जो सर्वत्र हज स्वीकार किया गया। अवीन्द शुरूआत में कॉलोनियल पेंटिग और कलाकृतियों तक ही सीमित रहते थे बाद में उका रुझान मुगल कला शैली की ओर रहा और उन्होंने 'अरबियन नाइट ' यानि अरब की रात की श्रृंखला पर आधारित जो चित्र श्रंखला बनायी उसे वैश्विक स्तर पर मान्यता मिली। क्योंकि यह भारतीय चित्रकला के पिछले स्कूलों से अलग हो गया और कुछ नया लायाकिन्तु मुगल और अंग्रेजों से संबधित कला को जाने के लिये अविन्द को काफी साहित्य और इतिहास जानना व समझना पडा। शायद सटीक अध्ययनों और तत्कालीन स्थतियों से जनित प्रतिक्रिया का ही परिणाम था कि उन्हों ने न केवल भारत माता की अपने अंदाज में कल्पना कर डाली और और एक एसे चित्र को बनाडाला जो कि सहज से सभी को स्वीकार भी हो गया।
अवनीन्द्र नाथ ठाकुर के बनाये मूल चित्र में भारतमाता को चारभुजाधारी देवी के रूप में चित्रित किया जो केसरिया वस्त्र धारण किये हैं और हाथ में पुस्तक, माला, श्वेत वस्त्र तथा धान की बाली लिये हैं।
बताते हैं कि अवीन्द्र का 1901 में आगरा आना हुआ था,उस समय वह मुगल पेंटिगों के बेहद शौकीन थे और यहां आकर कुछ नया खोज लेजाना चाहते थे।अपनी इसी यात्रा के काल में रहे अनुभवों व अनुभूतियों के परिणाम स्वरूप तमाम मुगल पेंटिगो के रंग और परिकलपनाओं के आधार पर उन्हों ने शाहजहां की मृत्यू (सन 1666)के बाद पार्थिव देह का अत्यंत सजीव सी लगने वाली कल्पना आधारित पेंटिग बनायी ।इस चित्र में मुगल बादशहा किले के मुस्समन बुर्ज स्थत अपने कक्ष में है और उसकी बडी बेटी जहाअरा उसके साथ है। पृष्टभूमि में ताजजमहल भी दिख रहा है ।
कॉलेनियल और मुगल काल की पेटिगों ओर कला संबधी जानककारियों से जनित प्रतिक्रिया से उनकी कूंची ने भारत माता को लेकर की जाती रहीं जो शाब्दिक कलपनायें 1905 में कैनवास पर साकार कीं आने वाले समय में भारत की आजादी के लक्ष्य का प्रतीक बन गयीं ।
-- 'हिंद देवी'
वैसे शाब्दिक रूपसे परिकल्पना की जाती रही भारत माता की एक अन्य तस्वीकर जिसे कि कई पहली मानते हैं अहमदाबाद के एक शिक्षक मगनलाल शर्मा ने साल 1906 में बनायी।। यह भी आजादी की लडाई में खूब प्रचारित रही। भारत माता की इस तस्वीर को 'हिंद देवी' के रूप में स्वीकारा गया ।
अब तक की परंपरा के अननुसार चाहे अवीन्द्र नाथ टेगोर की भारत माता पेंटिग आधारित प्रतिमा हो या फिर मगन लाल शर्मा की सृर्जनशीलता पर आधारित प्रतिमा 'हिन्द देवी'ये सार्वजनिक स्थान पर स्थापित तो की जाने लगीं किन्तु धार्मिक प्रतिमाओं के सामन इनकी प्राण प्रतिष्ठा नहीं होती नहीं इन्हें प्रसाद चढाया जाता है या भंडारे आदि का आयोजन ही करने की परंपरा है।
--संवैधानिक दर्जा नहीं
भारत माता की प्रतिमा या चित्र को भारतीय संविधान में स्थान नहीं मिल सका । इसकी आधार वजह यह है कि जब ये चित्र या कल्पना कलाकरों के द्वारा सामने लाये गये उस समय धार्मिक उन्माद से कही अधिक महत्व राष्ट्रवाद को था। बाद में मुस्लिम लीग के बनने और कलांतर ब्रटिश इंडिया के दौ भागों में विभाजन के बावजूद भारत के द्वारा सैक्यूलर मार्ग अपनाये जाने के कारण भारत माता संविधान में स्थान नहीं पा सकीं।
-- भारत माता 'मदर इंडिया'
वैसे आजाद भारत में भारत माता को लेकर नयी चेतना जाग्रत करने में 1957 में रिलीज हुई फिल्म 'मदर इंडिया ' की महत्वपूर्ण भूमिका है। संयोग की बात है कि मुस्लम समाज का एक वर्ग जहां भारत माता का विरोध करता रहा वहीं मदर इंडिया के किरदार को जिन नर्गिस दत्त ने किया था ,वह मूल रूप से कलकत्ता में जन्मी मुस्लिम महिला ही थीं और उनका नाम फातिमा राशिद था ।विरोध के संशय के बीच रिलीज हुई यह फिल्म देश भर में काफी कामयाब रही। आगरा में यह भारत टाकीज में लगी थी और गोल्डन जुबली करने के बाद भी काफी समय और चलती रही थी।
इस फिल्म के असर का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि 'भारत माता ' के पर्यावाचियों में मदर इंडिया अनुवादिक शब्द के तौर पर नहीं अपितु पहचान के रूप में अहिन्दी क्षेत्रों में सबसे प्रचलित है।
-- सभी की स्वीकरोक्ति जुटाना परंम लक्ष्य
शिक्षा प्रबंधन से जुडे आगरा के चर्चित एक्टविस्ट श्री राजेनद्र सचदेवा का कहना है कि भारत माता जब देशभर में स्वीकार्य किया जा चुका 'राष्ट्रीय एकात्मक्ता ' का प्रतीक है तो इसे विधिक दर्जा दिलवाये जाने की दिशा में भी प्रयस होना चाहिये। बेशक कई व्यक्ति और संगठन भारत माता से भानात्मक नाता व्यापक बनाने को सक्रिय हैं किन्तु 'मदर मैरी ' की प्रतिमा के प्रति आदरभाव रखने वाले अमेरिकन में 'स्टैच्यू आफ लिबर्टी ' की तरह आम स्वीकृति जैसी स्थिति के लिये देश के सभी वर्गों और मतालंबियों को जोडने का बहुत बडा लक्ष्य अब भी सामने है।