4 जनवरी 2016

प्रवासियों पर बनारसी दास चतुर्वेदी ने ही चलाई थी पहली सशक्त कलम

        1928 में  प्रकाशित पुस्‍तक ‘प्रवासी भारतवासी’

बंगला की 'प्रवासी' पत्रिका ,जिसमें लिखा
करतेथे बंगला के जानकार  प्रख्‍यात स्‍वतंत्रता 
सेनानी एवं हिन्‍दी लेखक स्‍व. पं श्रीराम शर्मा

आगरा, प्रवासी भारतीयों के प्रति सरकार भले ही आर्थिक निवेशों की संभावनाओं को दृष्‍टिगत आकर्षित हुई हो किन्‍तु वे इस देश की मिट्टी से कभी भी अपना नाता समाप्‍त नहीं कर सके हैं। ‘प्रवासी सम्‍मेलन ‘के रूप मे ताज सिटी में प्रवासी भारतीयों के प्रति एकात्‍मकता प्रदर्शित करने को जो शीर्ष अभिव्‍यक्‍ति उप्र प्रदेश सरकार ने अब की है,दरअसल इसके एक नये अध्‍याय की  शुरूआत 1914 में हो गयी थी। आगरा की जमीं के ही प्रख्‍यात साहित्‍यकार एवं राजनीतिज्ञ पूर्व सांसद स्‍व बनारसी दास चतुर्वेदी ने अपने लेखों और अनुभवों के आधार पर ही 1928 में प्रकाशित पुस्‍तक ‘प्रवासी भारतवासी’ से महात्‍मा गांधी की  सोच को प्रचारित करने में योगदान को लेकर एक नई सोच का प्रयास किया था।1914 में इंग्‍लैंड ,जर्मन और अमेरिका पहुंच चुके तमाम भारतीयों ने जहां देश की आजादी की लडाई और अंग्रेजों की ज्‍यादती के खिलाफ लाबिंग की वहीं प्रवासियों के बारे में भी कांग्रेस और स्‍वराज्‍य पार्टी जेसे राजनैतिक दलों ने सोचना शुरू कर दिया था।

महात्‍मा गांधी के नेटाल अपने परिवार के साथ लैट कर न जाने के फैसले से भारत में प्रवासियों के प्रति संवेदनाये अधिक मुखर हुई। गांधी जी को हमेशा इस बात का अहसास रहा कि वे दक्षिण अफ्रीका में कुछा काम अधूरे छोडकर आये हैं और देश में इसके लियें लगातार लाबिंग करनी है।तत्‍कालीन आगरा जनपद की फीरेजाबाद तहसील में 24दिसम्‍बर 1892 में जन्‍में स्‍व बनारसी दास चतुर्वेदी कांग्रेस और महात्‍मागांधी की प्रवासियों संबधी लीगेसी की महत्‍वपूर्ण कडी थे।लेखक,पत्रकार ओर राजनेता के तौर पर सक्रिय आगरा के इस इस सपूतने पहले विश्‍वयुद्ध काल के दौर में ही प्रवासियों पर लिखना शुरू कर दिया था।

प्रवासियों को गिरमिटिया और परमिट धारियों के उपनिवेशकाल के स्‍तार से आज के प्रवासी स्‍तार तक पहुंचाने तथा उनके प्रवास वाले देशों में नागरिकता के कानूनी अधिकार को दलवाने को की जाने वाली कोशिशों में स्‍व बनारसी दास जी का अभूतपूर्व योगदान रहा है।  1928 में उनकी प्रकाशित पुस्‍तक ‘प्रवासी भारतवासी’ अपने समय का चर्चित अंतर्राष्‍ट्रीय प्रकाशन थी। जिसके बारे में दुनियां का शायद ही कोई ऐसा प्रकाशन हो जिसमें उनके बारे में नहीं छपा हो।इसके बाद तो प्रवासी भारतीयों पर लगातार काम होता रहा  और एक न एक कारण से सेंट्रल एसेम्‍बली ही नहीं इंग्‍लैंड के हाऊसआफ कामंस तक में उनके मामले उठाये जाते रहे। किन्‍तु आजादी के बाद अब्रजन विभाग के स्‍वतंत्र देश के, विदेश विभग के रूप में व्‍यवस्‍थित होने तक सामाजिक और राजनैतिक सक्रिय जानोंके द्वारा ही आवाज उठाना सशक्‍त माध्‍यम था।

कल्‍पना कीजिये तब न तो चाडक्‍यपुरी थी और न हीं अब के से विदेशी दूतावास।जब देश आजाद हुआ उस समय केवल 23 विदेशी मिशन दिल्‍ली में मोजूद थे।

  पं श्री राम शर्मा लिखते रहे थे बंगला की ‘प्रवासी’ पत्रिका में

  स्‍व बनारसी दास जी के समान ही तत्‍कालीन एक अन्‍य प्रमुख् राजनेता स्‍व श्रीराम शर्मा का भी प्रवासियों पर लेखन में महत्‍वपूर्ण योगदान था।अब तो खैर कम ही लागों को इसकी जानकारी होगी किन्‍तु सुखद अनुभूति देने वाली यह एक सच्‍चाई है कि स्‍व श्री राम शर्मा ने कलक्‍कता से प्राकशित दीन बंधू ऐंड्रज के द्वारा संपादितहोती रही रवीन्‍द नाथ टैगोर के द्वारा संपादित रामानन्‍दा चटर्जी के द्वारा स्‍थापित   ‘मार्डनरी व्‍यू ‘पत्रिका के माध्‍यम से काफी कुछ प्रवासी भारतीयों के बारे में लिखा। बंगाली और अंग्रेजी भाषा पर भी हिन्‍दी के समान ही अधिकार रखने वाले स्‍व श्री राम शर्मा तत्‍कालीन राजनेताओं की तुलना में विदेशी मामलों में काफी दखल रखते थे। श्रीमती  एनी बिसेंट, पर्ल्‍स एस बक ,ऐंड्रूज ,बार्बरा कल्‍टलैड जैसे सामाजिक विषयों विख्‍यात लेखक और उपन्‍यासकारों से उनकी निकटता थी। थी।स्‍व शर्मा ने अनेक लेख बंगला में मार्डन रिव्‍यू के सह प्रकाशन के रूप में प्रकाशित होने वाली ‘प्रवसी’ पत्रिका में भी लिखे।  (स्‍व श्री राम शर्मा के बारे में आज की पीढी के पुरानी घटनाओं  से अनभिज्ञों के लिये यह यह बताना सामायिक है कि स्‍व श्रीराम शर्मा प्रख्‍यात लेखक रमेश कुमार शर्मा एवं  पत्रकार स्‍व उदयन के पिता पिता थे। )

सम्‍मेलन के वक्‍त तो याद करना ही चाहिये था

साहित्‍यकार कैप्‍टिन ब्‍यास चतुर्वेदी का मानना है कि प्रवासी सम्‍मेलन के दौरान अगर स्‍व बनारसी दास चतुर्वेदी और स्‍व श्री राम शर्मा जैसे साहित्‍य मनीषियों व चितकों के बारे में भी प्रवासी मेहमानों और उनके आज की पीढी के मेजवानों को अगर जानकारी देने के लिये प्रयास किया जाता तो अधिक उपयुक्‍त रहता। इन परपक्‍व विचारकों के द्वारा जो आज चर्चा में आरहा है उससे कही अधिक उस जमाने में ही सोचा और लिखा जा चुका है, जब कि न तो इंटरनेट ही था और नहीं डैस्‍क टाप पब्‍लिशिंग जेसी प्रकाशन और मुद्रण की सहज प्रणालियां ही सुलभ थी।।